जय हिन्द वन्देमातरम

जय हिन्द   वन्देमातरम

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

वो बीते दिन याद है

बचपन में हम अक्सर गर्मी की छुट्टियाँ गाँव में बिताते थे . उस समय गाँव में इतना अपनापन था कि हमारे टोले में रहने वाले सारे घर अलग-अलग होते हुए भी एक परिवार जैसे थे . जब हम लोग शहर से गाँव पहुचते थे तो जब तक एक एक घर में जाकर हर एक से मिल न लेते थे तब तक अपने घर में चैन से नहीं बैठते थे और गाँव के लोग भी हमें अपने बच्चे की तरह बहुत चाहते थे . इन छुट्टियों के पुरे एक महीने हर सारे भाई-बहन खूब धूम मचाते थे . कोई ज्यादा टोकने वाला भी नहीं होता था. आम का मौसम होता था और आम पुरे घर में बिखरे पड़े रहते थे . हम लोग घर में रहकर आम खाते तो कोई रोकने वाला नहीं होता था.परन्तु हम लोग आम चुराकर पड़ोस के दालान में जाकर आम खाते थे उससे आम खाने का मज़ा कई गुना बढ़ जाता था . हम लोग वैसे तो घर में रहकर लूडो, केरम वगैरा खेलते रहते थे परन्तु जब बड़ो को ताश खेलते देखते तो सोचते की इस खेल को भी हमें आजमाना चाहिए . तो हमने ताश खेलने का अपना ही ढंग इजात कर लिया था . एक बार दोपहर में छत के एक कोने में जहाँ छाया थी वहां बैठकर हमलोग ताश खेल रहे थे तो अचानक वहां कुछ आहट हुई.हमने देखा की एक खली डब्बा लुढ़कर हमारी ओर आ रहा है . हमने सोचा कि आस पास तो कोई है नहीं फिर ये डब्बा लुढ़कर कहाँ से आया , तभी हमारे नाना जी हमारे सामने आ कर खड़े हो गए.हम सबको तो मानो सांप सूंघ गया था . हम सभी नानाजी से बहुत डरते थे . उस ज़माने में बच्चो के हाथ में ताश देखना एक बहुत बड़ी बात होती थी खैर जैसे तैसे उस दिन तो बच गए पर हमें जाने क्यों कोई भी चीज छुपा कर करने में बहुत ही मज़ा आता था.
हम लोग गाँव में जब तक रहते थे नानीजी कि पूजा के लिए फूल ले के आया करते थे. लगभग हर एक परिवार के बच्चे ही फूल लेने जाया करते थे जो जितनी सुबह उठा उसकी फूल की डाली में उतने ज्यादा फूल रहते थे . इसी प्रतियोगिता में एक दिन में और मेरी दीदी ने निश्चय कर लिया की कल सुबह सबसे ज्यादा फूल हमारे घर में आने चाहिए .फिर क्या था रात को जैसे तैसे सोये और आधी रात को ही दोनों उठ के बैठ गए . उस ज़माने में आज की तरह सिरहाने में रखी हुई मोबाइल का बटन दबा कर समय तो देखा जाता नहीं था न ही बच्चो के आस-पास कोई घडी तो होती नहीं थी . इसलिए हम दोनों बहने चांदनी रात को सुबह समझ कर आधी रात को ही फूल तोड़ने निकल पड़े . रात को ही आस पास के घरों से कलियाँ तोड़कर हमने घर पर रख दिया क्योंकि फूल खिलने का समय तो हुआ नहीं था. उसके बाद सुबह में एक बार फिर से फूल तोड़ने के लिए निकले तो आस पास के घरों से तरह तरह के गालियों की आवाज़े सुनाई देने लगी जो कि हमारे लिए थी ये हम बखूबी जानते थे . इसलिए हम लोग एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे . इसी तरह हमने आम निम्बू और जलेबियाँ भी खूब चुरा चुरा कर खाई थी . निम्बू और जलेबिया खाने पर मम्मी से डांट भी पड़ती थी क्योंकि ये फल इस तरह से खाना पेट के लिए नुकसान दायक होता था. जिनके घर से हम चोरी करते थे वो हमको पिटाई के वक्त बचाने भी आते थे. इस तरह शरारत और मस्ती करते करते पता नहीं कब एक महीना बीत जाता था .
अभी दो ढाई साल पहले हम फिर गाँव गए परन्तु ना तो आपसी रिश्तो में वो मिठास थे ना ही हमारे लिए उनका प्यार ही उनकी आँखों में दिखा हम चाह कर भी वो मस्ती भरे दिन वापस नहीं ला सकते थे. वो दिन काफी पीछे छूट गए थे और शायद कभी वापस आने वाले नहीं थे. हम शायद अपने आप से ही पूछ रहे थे कि ऐसा क्यों ?
क्या हमारी आने वाली पीढ़ी गर्मी कि छुट्टी का मज़ा इस तरह से ले पायेंगे ?

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