जब उसने यह देखा कि मेरा ध्यान कहीं और है तो उसने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए एक बार फिर से गोलिया लेने के लिए मौन अनुरोध किया परन्तु इस बार उसने अपने पीठ से लगे पेट कि तरफ अपना एक हाथ रखा और एक उम्मीद भरी दृष्टि मुझ पर डाली. वो नज़र मुझे आज भी याद है . और शायद मैं इस घटना को कभी नहीं भूल पाउंगी . उस वक्त मैंने इसे एक मामूली बात समझी जो घर से निकलने पर होती रहती है . ऐसा नहीं था कि फूट-पाथ पर इस तरह घूम-घूम कर गर्मी कि दोपहर में छोटी मोटी चीजे बेचने वाला पहला व्यक्ति देखा हो . मैने अपने तब तक कि जिन्दगी में असहाय वृद्ध एवं बच्चे या फिर विकलांग व्यक्तियों को सड़क के किनारे मंदिरों के पास रेलवे स्टेशन पर बैठकर भीख मांगते बहुत देखा था परन्तु उस वृद्ध व्यक्ति कि आँखों में जाने कौन से भाव थे जो मुझे आज भी अन्दर तक झकझोर देते है विशेष कर तब जब में किसी ऐसे वृद्ध व्यक्ति को अपना पेट भरने के लिए मजबूरीवश कुछ काम करते हुए देखती हूँ .
जब मेने उसे बिलकुल ही नजरंदाज कर दिया था और अपने दोस्त के साथ बस में चली गई थी तब तक मुझे इस बात का बिलकुल एहसास नहीं था परन्तु जब मै रात को सोते समय अपनी दिन भर कि घटनाओ को याद कर रही थी तो मेरे आँखों के सामने अकस्मात् ही उस वृद्ध का चेहरा आ गया जिसमे याचना भरी हुई थी . उन दिनों में मानसिक रूप से थोड़ी उलझनों में रहती थी और अपनी ही परेशानियों में खोयी रहती थी .अपनी कठिनाइयों के बारे में सोचते सोचते अचानक मुझे ये एहसास हुआ कि अन्दर से कोइ आवाज आ रही हो कि मै अपनी उलझनों में इतनी स्वार्थी हो गई कि मैने एक जरूरतमंद को एकदम नकार दिया .
मेरा ज़मीर मुझसे पुछ रहा था कि मैं क्या सचमुच उसकी मदद नहीं कर सकती थी ?
इन बातो के लिए क्या मेरे पास बिलकुल वक्त नहीं था ?
क्या मेरे अन्दर इतनी भी इंसानियत नहीं बची थी कि उसके मूक आग्रह को समझ पाती ?
1 टिप्पणी:
"क्या मेरे अन्दर इतनी भी इंसानियत नहीं बची थी कि उसके मूक आग्रह को समझ पाती?"
इंसानियत बेचारी!
अगर हमारे अन्दर है तो हमें बहुत मौके मिलते हैं - उसे दिखने के - इसलिए विश्वास है कि आपको भी मिलेंगे.
सोच को शब्द देने का सार्थक प्रयास - अच्छा आलेख
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