इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
दुष्यंत कुमार
4 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर अहसासों को प्रस्तुत करती हैं ये पंक्तियाँ, प्रस्तुति भी बहुत खूबसूरत है,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है ,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए ।
इस नदी की धार सुनवा कर आपने मन मोह लिया .बहुत अच्छा चयन है "साए में धूप से ".
दुष्यंत कुमार को कितनी बार पढ लीजिए, लगता है पहली बार पढ रहे हैं।
दुष्यंत जी की अच्छी कविता साझा करने का धन्यवाद.
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